जंग टलती रहे तो बेहतर है ( पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें) ऐ शरीफ़ इंसानो खून अपना हो या पराया हो, नस्ल ए आदम का खून है आख़िर। ज़ंग मगरिब में हो या मशरिक़ में अमन ए आलम का खून है आख़िर! इसलिए ऐ शरीफ़ इंसानों जंग टलती रहे तो बेहतर है, आप और हम,सभी के आंगन में शमां जलती रहे तो बेहतर है। बम घरों पर गिरे या सरहद पर, रूह ए तामीर जख्म खाती है,