जो बोया वही तो काट रहा।। क्या खोया क्या पाया मैंने, जो बोया वही तो काट रहा। क्या था संचित जीवन मे मेरे, जो बैठ आज मैं बांट रहा। निजसुख के एक लालच में, रिश्तों की होली जलाई थी। अर्थ-मुग्ध इस दुनिया मे, अपनी ही बोली लगाई थी। कहाँ ख़बर और कब ये पता था, क्या बोली लगी, किस भाव बिका। बस हाथों हाथ रहा बदलता, किस बाजार गिरा, किस ठाँव टिका। रिश्तों के पुराने ज़ख्म वही, हूँ बैठ आज मैं चाट रहा। क्या खोया क्या पाया मैंने, जो बोया वही तो काट रहा। पतझड़ का मौसम कब बदला, कब इन बागों में बहार रही। हाथों में बस मेहंदी रचती रही, दुल्हन-डोली बिना कहार रही। कुसुम कली ने लिया जन्म कब, गर्भ से ही चीत्कार रही। कुछ पल्लव ऐसे भी होते, अर्ज़ी जिनकी अस्वीकार रही। दोनों ध्रुवों की ये खाई चौड़ी, पकड़ कलम मैं पाट रहा। क्या खोया क्या पाया मैंने, जो बोया वही तो काट रहा। दर्द का भी दो पत्थर ले, मैं घीस उनको आग लगाऊंगा। पकड़ सभी के सूक्ष्म नशों को, दे टीस उनको आज जगाऊंगा। हकदार रहे वो भी पापों के, जो तान के चादर सोये हैं। दोष रहेगा उनका भी, निज को, जो मान के कातर रोये हैं। कुछ तो धृत अब निकलेगा, जो मैं छाली को घांट रहा। क्या खोया क्या पाया मैंने, जो बोया वही तो काट रहा। ©रजनीश "स्वछंद" जो बोया वही तो काट रहा।। क्या खोया क्या पाया मैंने, जो बोया वही तो काट रहा। क्या था संचित जीवन मे मेरे, जो बैठ आज मैं बांट रहा। निजसुख के एक लालच में,