Nojoto: Largest Storytelling Platform

"""हमारे संघर्ष और हमारे प्रवर्धित मूल्य """

"""हमारे संघर्ष और हमारे प्रवर्धित मूल्य """


 
             जब हम संघर्ष के दिनों में होते हैं, तो प्रायः परिवार, समाज, अपनी परिस्थिति व प्रस्थिति, सगे- संबंधियों... आदि को लेकर हमारे अंतर्मन के भीतर द्वन्द की एक गहरी रणभूमि अपने अस्तित्व को आकार दे रही होती है. ऐसे में हमारे भीतर एक अन्य प्रकार की 'सुसाइडल टेन्डेन्सीज' हावी होने लगती है, जहाँ जीवन में मृत्यु जीने से कहीं ज्यादा सुगम प्रतीत हो रही होती है. अपने रक्तिम संबंध तक उम्रान्तरों के चलते वैचारिक मतभेदों की कुंठाओं में परस्पर एक साथ, एक ही छत के नीचे रहने के बावजूद जिस अकल्पनीय कुरुक्षेत्र को वाणियों की तीक्ष्णता में आकार दे रहे होते हैं. वह कम उम्र बनाम् अधिक उम्र, अनुभवहीन बनाम् अनुभव शील, किशोर बनाम् प्रोढ़... जैसे वादियों-प्रतिवादियों की बहस के ऐसे निर्मम मंच बन जाते हैं, जहाँ दशम् से द्वादश तक की सीमा को स्पर्श करते- करते नवोदित किशोरों के जीवन स्वप्नों के क्रूरतम् दमन के अध्यायों के अविस्मरणीय दौरों में ज़मींदोज होने लगते हैं. संभव है यह सामान्यीकरण सभी के लिए एकसमान न हो, फिर भी हम अपने और अपने दृश्य समाजों की मध्यमवर्गीय लोगों के जीवन में यह सामान्य प्रवृत्ति एक जीवन्त अभिलक्षण के रूप में देखते हैं.
             उस ऐसी अद्भुत सरस दुनिया से भला हम अलग कहाँ रहने वाले  थे? एक ओर जहाँ हमारी प्रस्थिति इन्हीं के इर्द-गिर्द अवस्थित रहने वाली रही है, वहीं दूसरी ओर हमारा भी अपने घरों में मझला होना हमारे उम्रान्तरिक संघर्षों में सोने पर सुहागा चढ़ाता रहा है. द्वादश उत्तीर्ण करते ही जहाँ एक ओर हम खुले आसमां में अपने उन्मुक्त उड़ान की भावी सुखद अनुभूति को लेकर हम खिलखिला रहे थे, वहीं दूसरी ओर नियति हमें बांध लेने की यथार्थता में लोमहर्षित हो रही थी. भला! नियति को मोड़ कौन सका है? हर एक के जीवन को कहीं न कहीं इस नियति ने किसी न किसी अवस्थाओं में ठगा अवश्य ही है, अतैव हम भला अपवाद कैसे बन सकते थे? हम भी इसी नियति के द्वारा आखेट किये गये, इसके आखेटास्त्र की शिल्पता इतनी सुभेद्य थी कि द्वादशोपरान्त हमें अपने जीवन को जीवन की अनुभूति कराने में ही पाॅंच वर्ष लग गये. उम्मींदें, सपने, वैयक्तिक अभिलाषायें, शैक्षिक व्यवस्थायें आदि सब... न जाने कब, किस अतीत के मिथ्या अनुराग बन गये, पता ही नहीं चला. परन्तु यह जो भी रहा, हमारी नियति का एक अवश्यंभावी प्रतिफल ही रहा. यह किसी के जीवन की उत्कृष्टता में हमारे वृष्टि छाया प्रदेश बन जाने का परिणति थी. वृष्टि छाया प्रदेश की महत्ता जानने के के लिए लोगों को अरावली और विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखला का भूगोल जानना होगा. राजस्थान की नियति में वर्षा का न होना, अरावली के दक्षिण व पूर्व में वर्षा और हरित क्षेत्रों का होना ही है. राजस्थान का अपनी दक्षिण व पू्र्व सीमाओं में अरावली व विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं को स्वतंत्रत आकार लेने देना ही है. जब वह वृष्टि छाया प्रदेश होने की नियति को अंगीकार करता है तभी उससे संबद्ध किसी दूसरे भूभाग में प्राकृतिक समृद्धि व सौष्ठव निर्मित होता है.
                   जीवन के ये पञ्च बसन्त गुलाम अली जी की एक ग़ज़ल "चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला' के मानों चांद रूपी उपमान के यथार्थ प्रतिमान बन गये थे. ये समय शिलायें हमसे विस्थापित न की जा सकी. ये समय शिलायें हमें जहाँ भौतिक एवं सामाजिक में अनुत्पादक बनाये रही, वहीं इन्होंने हममें हमारे वैयक्तिक मूल्यों को पर्याप्तता की उच्चिष्ठ सीमाओं तक परिवर्धित, परिरक्षित व परिपोषित भी किया. आज हम अपने इन मूल्यों में ही स्वयं को अंतर्निहित देखते हैं. इनके लिए हम समाज, परिवार, मैत्री, बंधुता, संबंध... सब त्यागते आ रहे हैं. इससे हमारी निष्पक्षता व तटस्थता को एक नवीन ऊँचाई मिल होती है और इससे हमारी अन्तर्रात्मा की प्रफुल्लता हमें असीम परमानन्द की चरम सुखानुभूति करा रही है. आज जब भी कोई इन पर कोई प्रश्न उठाता या फिर कहता है कि देखते हैं दीपक तुम कब तक ये आदर्श जी सकोगे... तो ऐसे क्षण अन्तर्रात्मा की मनहर प्रमला मुस्कान हमारे चेहरों की भी एक अद्भुत मुदितावस्था में सौन्दर्यीकरण कर देती है...  और हमारे कंठ मौन में वसीम बरेलवी की उक्त पंक्तियाँ अनायास ही गुनगुनाते लगते हैं..... 
              "उसूलों  पे  जहाँ  आँच  आये  टकराना  ज़रूरी  है, 
               जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है."
      हमारा जीवन हमारे संघर्षों में किस भॉंति एवं किस दिशा में निखर रहा है, हम नहीं जानते. हाँ संभव है कि हमारे कुरुक्षेत्र की एकाकीयता हमें अपने रिश्तों की दुनियां में दूर का तारा बना दे, हमारी स्वार्थपरता इनके आकांक्षाओं की पूर्ति कभी न करना चाहे.... आदि सब लोकालाप अब हमारे लिए मायने लेशमात्र भी नहीं रखते. इतनी दीर्घ अभिव्यक्ति का निष्कर्ष एक ही है कि हम अब अपनी सत्यनिष्ठा से अब समझौते नहीं करने वाले, हमसे किसी भी प्रकार के मैत्री या अन्य संबंध स्थापित करने से पूर्व उसे भावनात्मक शून्यता को जीने में समर्थ होने की आवश्यकता है, हम अपने किसी भी मूल्य के साथ परिवर्तन तभी स्वीकार कर सकते हैं.... जब वह किसी भी संगत प्राकृतिक न्यायों में हमारे मूल्यों को बाधक सिद्ध करे.
"""हमारे संघर्ष और हमारे प्रवर्धित मूल्य """


 
             जब हम संघर्ष के दिनों में होते हैं, तो प्रायः परिवार, समाज, अपनी परिस्थिति व प्रस्थिति, सगे- संबंधियों... आदि को लेकर हमारे अंतर्मन के भीतर द्वन्द की एक गहरी रणभूमि अपने अस्तित्व को आकार दे रही होती है. ऐसे में हमारे भीतर एक अन्य प्रकार की 'सुसाइडल टेन्डेन्सीज' हावी होने लगती है, जहाँ जीवन में मृत्यु जीने से कहीं ज्यादा सुगम प्रतीत हो रही होती है. अपने रक्तिम संबंध तक उम्रान्तरों के चलते वैचारिक मतभेदों की कुंठाओं में परस्पर एक साथ, एक ही छत के नीचे रहने के बावजूद जिस अकल्पनीय कुरुक्षेत्र को वाणियों की तीक्ष्णता में आकार दे रहे होते हैं. वह कम उम्र बनाम् अधिक उम्र, अनुभवहीन बनाम् अनुभव शील, किशोर बनाम् प्रोढ़... जैसे वादियों-प्रतिवादियों की बहस के ऐसे निर्मम मंच बन जाते हैं, जहाँ दशम् से द्वादश तक की सीमा को स्पर्श करते- करते नवोदित किशोरों के जीवन स्वप्नों के क्रूरतम् दमन के अध्यायों के अविस्मरणीय दौरों में ज़मींदोज होने लगते हैं. संभव है यह सामान्यीकरण सभी के लिए एकसमान न हो, फिर भी हम अपने और अपने दृश्य समाजों की मध्यमवर्गीय लोगों के जीवन में यह सामान्य प्रवृत्ति एक जीवन्त अभिलक्षण के रूप में देखते हैं.
             उस ऐसी अद्भुत सरस दुनिया से भला हम अलग कहाँ रहने वाले  थे? एक ओर जहाँ हमारी प्रस्थिति इन्हीं के इर्द-गिर्द अवस्थित रहने वाली रही है, वहीं दूसरी ओर हमारा भी अपने घरों में मझला होना हमारे उम्रान्तरिक संघर्षों में सोने पर सुहागा चढ़ाता रहा है. द्वादश उत्तीर्ण करते ही जहाँ एक ओर हम खुले आसमां में अपने उन्मुक्त उड़ान की भावी सुखद अनुभूति को लेकर हम खिलखिला रहे थे, वहीं दूसरी ओर नियति हमें बांध लेने की यथार्थता में लोमहर्षित हो रही थी. भला! नियति को मोड़ कौन सका है? हर एक के जीवन को कहीं न कहीं इस नियति ने किसी न किसी अवस्थाओं में ठगा अवश्य ही है, अतैव हम भला अपवाद कैसे बन सकते थे? हम भी इसी नियति के द्वारा आखेट किये गये, इसके आखेटास्त्र की शिल्पता इतनी सुभेद्य थी कि द्वादशोपरान्त हमें अपने जीवन को जीवन की अनुभूति कराने में ही पाॅंच वर्ष लग गये. उम्मींदें, सपने, वैयक्तिक अभिलाषायें, शैक्षिक व्यवस्थायें आदि सब... न जाने कब, किस अतीत के मिथ्या अनुराग बन गये, पता ही नहीं चला. परन्तु यह जो भी रहा, हमारी नियति का एक अवश्यंभावी प्रतिफल ही रहा. यह किसी के जीवन की उत्कृष्टता में हमारे वृष्टि छाया प्रदेश बन जाने का परिणति थी. वृष्टि छाया प्रदेश की महत्ता जानने के के लिए लोगों को अरावली और विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखला का भूगोल जानना होगा. राजस्थान की नियति में वर्षा का न होना, अरावली के दक्षिण व पूर्व में वर्षा और हरित क्षेत्रों का होना ही है. राजस्थान का अपनी दक्षिण व पू्र्व सीमाओं में अरावली व विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं को स्वतंत्रत आकार लेने देना ही है. जब वह वृष्टि छाया प्रदेश होने की नियति को अंगीकार करता है तभी उससे संबद्ध किसी दूसरे भूभाग में प्राकृतिक समृद्धि व सौष्ठव निर्मित होता है.
                   जीवन के ये पञ्च बसन्त गुलाम अली जी की एक ग़ज़ल "चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला' के मानों चांद रूपी उपमान के यथार्थ प्रतिमान बन गये थे. ये समय शिलायें हमसे विस्थापित न की जा सकी. ये समय शिलायें हमें जहाँ भौतिक एवं सामाजिक में अनुत्पादक बनाये रही, वहीं इन्होंने हममें हमारे वैयक्तिक मूल्यों को पर्याप्तता की उच्चिष्ठ सीमाओं तक परिवर्धित, परिरक्षित व परिपोषित भी किया. आज हम अपने इन मूल्यों में ही स्वयं को अंतर्निहित देखते हैं. इनके लिए हम समाज, परिवार, मैत्री, बंधुता, संबंध... सब त्यागते आ रहे हैं. इससे हमारी निष्पक्षता व तटस्थता को एक नवीन ऊँचाई मिल होती है और इससे हमारी अन्तर्रात्मा की प्रफुल्लता हमें असीम परमानन्द की चरम सुखानुभूति करा रही है. आज जब भी कोई इन पर कोई प्रश्न उठाता या फिर कहता है कि देखते हैं दीपक तुम कब तक ये आदर्श जी सकोगे... तो ऐसे क्षण अन्तर्रात्मा की मनहर प्रमला मुस्कान हमारे चेहरों की भी एक अद्भुत मुदितावस्था में सौन्दर्यीकरण कर देती है...  और हमारे कंठ मौन में वसीम बरेलवी की उक्त पंक्तियाँ अनायास ही गुनगुनाते लगते हैं..... 
              "उसूलों  पे  जहाँ  आँच  आये  टकराना  ज़रूरी  है, 
               जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है."
      हमारा जीवन हमारे संघर्षों में किस भॉंति एवं किस दिशा में निखर रहा है, हम नहीं जानते. हाँ संभव है कि हमारे कुरुक्षेत्र की एकाकीयता हमें अपने रिश्तों की दुनियां में दूर का तारा बना दे, हमारी स्वार्थपरता इनके आकांक्षाओं की पूर्ति कभी न करना चाहे.... आदि सब लोकालाप अब हमारे लिए मायने लेशमात्र भी नहीं रखते. इतनी दीर्घ अभिव्यक्ति का निष्कर्ष एक ही है कि हम अब अपनी सत्यनिष्ठा से अब समझौते नहीं करने वाले, हमसे किसी भी प्रकार के मैत्री या अन्य संबंध स्थापित करने से पूर्व उसे भावनात्मक शून्यता को जीने में समर्थ होने की आवश्यकता है, हम अपने किसी भी मूल्य के साथ परिवर्तन तभी स्वीकार कर सकते हैं.... जब वह किसी भी संगत प्राकृतिक न्यायों में हमारे मूल्यों को बाधक सिद्ध करे.