काव्य संख्या-193 ============== वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये। ============== वो आए थे घर संवारने उजार कर निकल गये। पहले से थे मायूस हम वो और मायूस कर गये, वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये। बड़ी उम्मीद थी उनसे हमे उम्मीदों को तोड़ निकल गये, वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये । एक आवाज़ थी मेरे पास वो भी छीनकर निकल गये, वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये । भूख गरीबी बेरोजगारी से त्रस्त देश वो देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांट रहे वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये । खुद-कुशी कर रहे हैं किसान यहां वो पूंजीपतियों की तिजौरियां भर रहे, वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये । पड़ोसियों से अच्छे रिश्ते थे मेरे उनसे भी झगड़कर निकल गये, वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये । सौहार्दपूर्ण ढ़ंग से जी रहे समाज में साम्प्रदायिकता के बीज बो निकल गये वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये । प्रियदर्शन कुमार वो आए थे घर संवारने उजाड़ कर निकल गये।