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बेशर्त दोस्ती वो बचपन भी क्या खूब था जब शर्तों के

बेशर्त दोस्ती वो बचपन भी क्या खूब था 
जब शर्तों के आड़ में 
ठुमक ठुमक कर 
पचपन से पंजा लड़ाया करता था। 
कभी जीता नहीं मगर 
बाज़ी से इतर 
दोस्ती बेशर्त हुआ करती थी।
अब ना वो वक़्त है 
और ना ही वो दोस्त ।
मगर दोस्ती तो अब भी है
पर शर्तों वाली, 
कमबख्त बेशर्त दोस्ती का दौर 
शायद अब ढल सा गया है।
हर आंखो का पानी 
पिघल सा गया है। 
जो तुतली बोलियों की मिठास थी 
कानों में देर तक घोलती 
अब उन मिठास का दौर 
जल सा गया है। 
बचपन में कभी दोस्त के घर 
हम बिन बुलाए मेहमान 
बनकर जाया करते थे।
और आज बुलाने पर भी.....नहीं जाते 
कि शायद कोई काम 
करने को ना कह दे।
मतलबी दुनियां के आशिक़ बनकर 
आशिकी के सारे ग्रंथ जला चुके हैं। 
ख़ैर अब शर्तों में कहां तक 
बंध कर रहती है दोस्ती, 
गर गुमनाम भी हो जाए 
तो भी बेशर्त संभलती है दोस्ती। 
ये तो महज़ बातें हैं अपनों जैसी, 
जो तरकश में रहकर भी ख़ामोश रहती है। 
काश कि फिर लौटे 
उमंगों से सराबोर 
बचपन के वो दिन 
और फिर से झगड़ते हुए 
महसूस करें हम 
अपने अपने हिस्से की बेशर्त दोस्ती।। 
#दिसंबर #December #december #बेशर्त_दोस्ती #दिसंबर #कविता #कवि #विचार #बचपन #तुतली_बोली_की_मिठास #बचपन_का_झगड़ा #भारत
बेशर्त दोस्ती वो बचपन भी क्या खूब था 
जब शर्तों के आड़ में 
ठुमक ठुमक कर 
पचपन से पंजा लड़ाया करता था। 
कभी जीता नहीं मगर 
बाज़ी से इतर 
दोस्ती बेशर्त हुआ करती थी।
अब ना वो वक़्त है 
और ना ही वो दोस्त ।
मगर दोस्ती तो अब भी है
पर शर्तों वाली, 
कमबख्त बेशर्त दोस्ती का दौर 
शायद अब ढल सा गया है।
हर आंखो का पानी 
पिघल सा गया है। 
जो तुतली बोलियों की मिठास थी 
कानों में देर तक घोलती 
अब उन मिठास का दौर 
जल सा गया है। 
बचपन में कभी दोस्त के घर 
हम बिन बुलाए मेहमान 
बनकर जाया करते थे।
और आज बुलाने पर भी.....नहीं जाते 
कि शायद कोई काम 
करने को ना कह दे।
मतलबी दुनियां के आशिक़ बनकर 
आशिकी के सारे ग्रंथ जला चुके हैं। 
ख़ैर अब शर्तों में कहां तक 
बंध कर रहती है दोस्ती, 
गर गुमनाम भी हो जाए 
तो भी बेशर्त संभलती है दोस्ती। 
ये तो महज़ बातें हैं अपनों जैसी, 
जो तरकश में रहकर भी ख़ामोश रहती है। 
काश कि फिर लौटे 
उमंगों से सराबोर 
बचपन के वो दिन 
और फिर से झगड़ते हुए 
महसूस करें हम 
अपने अपने हिस्से की बेशर्त दोस्ती।। 
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vishalkumar3172

Vishal Kumar

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