मैं अंधकार से आया, बन चक्षुहीन क्या पाया, थी, दम्भ लबालब यौवन, ज्वाला में जला दी काया। दुर्भिक्ष निशाचर मन ने, कर दिया अनाथ समझ को, आचार्य के श्री चरणों में, जा मिला पीयूष निराला। हो जाये अविचल जीवन, आशय पा वीर धनन्जय, वरना अरण्य अपराजय, अनुचर है भविष्य तेरा, मन! आधिपत्य में लेकर, स्वीकृति ना देगा श्रेष्ठ कर्म, सुखनिता, सदा से आयीं, अपकर्ष के पथ ले जाने, हो जाये मलिन जो साधक, हो जाये तिरोहित दृग से।। कर जतन ना टपके दृगजल झंझावत में ना पड़ना, ले शीघ्र बुहार मन प्रांगण, तारापथ दृष्टि रखना, सहकार तेरी चेतनता, आह्लाद बने आभूषण, हो सर्वव्याप्त की वांछा, प्रतिमान बने तू सबका, उस प्रथम! का तू प्रतिरूपक, बन जा अवलंब सभी का।। जीवन विहार साधक का, बरताव प्रधान धनाधिप, सुरपति साम्राज्य भी फीका, है दर्शन राम मनोरथ, उस दीनबन्धु का गौरव, जब लें संभाल उपवन को, उपहार निष्कपटता से, उत्कर्ष प्रवर पद हेतु, अनुकम्म्पा की कस्तूरी, कुमकुम सुगंधमय घटिका, श्री गुरुवर ने दिखलाई।। कर योग साधना, कल्पतरु, हो दिव्य स्वभाव उजागर, हो निरोध चित्त-वृत्ति, पल - पल हो मांगल्य पूरित।। ©Tara Chandra #सद्गुरुदेव