ना अब थोड़ा सा भी भ्रम रहा, ना थोड़ा सा खुद पर गुमान रहा, जिन्दगी ऐसे दौर से होकर गुजरी, लोगों का ऊंचा मकान मगर फीका पकवान रहा, बस यही दिनों रात यहीं सोचते हुए ही गुजर गए लम्हे, कब इस कशमकश जिन्दगी के सफर से बाहर निकले, एकाएक सब कुछ जला संग साफ़ हो गए सभी रास्ते, जिन्दगी के इस सफर से बढ़कर बाहर का श्मशान रहा। आशुतोष शुक्ल (उत्प्रेरक) ©ashutosh6665 #findyourself #poem #Poema