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ये दुनिया कुछ और होती। निकाल पाता जो दिल से ये तल

ये दुनिया कुछ और होती।

निकाल पाता जो दिल से ये तल्खियां,
जला पाता जो बुझी हुई ये बत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

कपड़े का दोष क्यूँ, मनोविचार चिथड़ा पड़ा,
रोक पाता जो कसी जा रही फब्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

दर्द का अहसास क्यूँ सब खोने के बाद है,
जला पाता जो पहले ये मोमबत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

शांत नदी में तो हर कोई पार होता है,
जो भँवर में  उतारी होती कश्तियाँ,
ये दुनिया कुछ और होती।

फुटपाथों पे जो आ ठहरी है ज़िन्दगी सारी,
जो जलने से बचाई होती ये बस्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

है हाथ मे नस्तर निशाना अपनो की गर्दनें,
जो मिटाई होतीं फिरकापरस्तियाँ,
ये दुनिया कुछ और होती।

संस्कारों की बली चढ़ती सुबह-ओ-शाम है,
जो बचाई होती विरासत और हस्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

है बदरंग मायूस सी होती ज़िन्दगी सारी,
जो पतझड़ में बचाई होती पत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

©रजनीश "स्वछंद" ये दुनिया कुछ और होती।

निकाल पाता जो दिल से ये तल्खियां,
जला पाता जो बुझी हुई ये बत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

कपड़े का दोष क्यूँ, मनोविचार चिथड़ा पड़ा,
रोक पाता जो कसी जा रही फब्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

निकाल पाता जो दिल से ये तल्खियां,
जला पाता जो बुझी हुई ये बत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

कपड़े का दोष क्यूँ, मनोविचार चिथड़ा पड़ा,
रोक पाता जो कसी जा रही फब्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

दर्द का अहसास क्यूँ सब खोने के बाद है,
जला पाता जो पहले ये मोमबत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

शांत नदी में तो हर कोई पार होता है,
जो भँवर में  उतारी होती कश्तियाँ,
ये दुनिया कुछ और होती।

फुटपाथों पे जो आ ठहरी है ज़िन्दगी सारी,
जो जलने से बचाई होती ये बस्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

है हाथ मे नस्तर निशाना अपनो की गर्दनें,
जो मिटाई होतीं फिरकापरस्तियाँ,
ये दुनिया कुछ और होती।

संस्कारों की बली चढ़ती सुबह-ओ-शाम है,
जो बचाई होती विरासत और हस्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

है बदरंग मायूस सी होती ज़िन्दगी सारी,
जो पतझड़ में बचाई होती पत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

©रजनीश "स्वछंद" ये दुनिया कुछ और होती।

निकाल पाता जो दिल से ये तल्खियां,
जला पाता जो बुझी हुई ये बत्तियां,
ये दुनिया कुछ और होती।

कपड़े का दोष क्यूँ, मनोविचार चिथड़ा पड़ा,
रोक पाता जो कसी जा रही फब्तियां,