तू क्या जाने, ये जिन्दगी में केसे गुजारती हूं। दुनियां तारीफ़ करती है,होठों की उन झुटी मुस्कुराहटों का। पर आंखों से बहते ये सच्चे अश्क किसी को नहीं दिखता। अपने अपने दर्दों को बांटने तो सब आ जाते हैं यहां। फ़िर मेरा हमदर्द कोई क्यूं नहीं बनता। थक चुकी हूं, ए जिन्दगी तुझसे यूं आंखों से बोझ अब संभाला नहीं जाता। नींद छा जाती है पलकों पे हर रात, पर देखो ना,मुझसे ना जाने क्यों सोया नहीं जाता। सांसों में अब एक आह सी रह गई है। धड़कन ये चुप चुप सी चल रही है। जिंदा तो हूं,जिस्म से मैं। मगर रूह ना जाने मेरी कब से मर गई है। खुद से बातें करते हुए,मैं पुराने खुद को याद करती हूं। तू क्या जाने, ये जिन्दगी मैं केसे गुजारती हूं। ©Shreeya सोचती हूं,अकेले में थोड़ा सा रो लूं तो शायद, बोझ दिल का ज़रा सा हल्का हो जाए। बस टूटे ख्वाबों की रेत ही बच गई है, इन कम्बक्त आंखों के किनारों पर तो, अश्क के लहरें तक नहीं मंडराता।