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आलू बड़े की कढी बाऊजी खाने- खिलानें दोनों कें ही

आलू बड़े की कढी

बाऊजी खाने- खिलानें दोनों कें ही शौकिन थे। दादी कलपती कि बाऊजी का पूरा बचपन पढाई की वजह से रिश्तेदारों के घरों में बीता, वहाँ जों मिल गया, जितना मिल गया खाने से मन अतृप्त रह गया हैं। 
और बाऊजी को टोकने पर वें तुरन्त रामकृष्ण परमहंस जी की भोजन प्रियता का प्रसंग सुनाकर मुस्कराने लगते... कहते... खाना- खिलाना बुरा शौक नहीं हैं। "
इसलिए छुट्टी का दिन हों या वार त्यौहार, हमारे घर किसी न किसी मेहमान का निमंत्रण तय रहता था क्योंकि बाऊजी किसी की भी दावत उधार नहीं रखते थे। बल्कि दोगुना थाल परोसा जाता था। 
बाऊजी के टिफिन  में भी दोगुनी मात्रा में भोजन रखा जाता था। बाऊजी भी प्राय: सहकर्मियों के डिब्बे में आए। स्वादिष्ट व्यंजन का घर आकर जिक्र भी करते। 
एक बार उन्होंने बताया_"आज बजाज के टिफिन मे आलू बड़े की कढी आई थी, बहुत स्वादिष्ट। "
फुलोरी, भजिये, सुरजने, बैंगन, पापड़ आदि की कढी तो खाई थी मगर उन्हें आलू बड़े की कढी बहुत पसंद आई माँ सें कहने लगे, _"तुम भी बनाना चावल के साथ मजा आ जाएगा। गरम- गरम खाने में। 
सुनकर हम सबके मुहं में पानी आ गया। मगर बात टल गई और फिर तो ऐसी टली, की टली ही टली। 
हर बार त्योहार, जन्मदिन, व्रत उपास के अगले दिन कढी चावल बनाने की परम्परा जारी रही, मगर जाने क्यों आलू बड़े की कढी कभी नहीं पकाई गई, बस जिक्र ही होता रहा। 
पहले माँ सिधारी उसके साल भर बाद दादी भी सिधार गई। सालों बीत गए। हम तीनों बेटियाँ ब्याही गई, बहुंए आती गई। रसोई इस हाथ से उस हाथ में हस्तातरित होने के बावजूद भी बाऊजी की प्रशंसित आलू बड़े की कढी सिर्फ रसीली चर्चा में शामिल होती रही मगर उनकी थाली में कभी परोसी नहीं गई। 

धीरे- धीरे बाऊजी शायद आलू बड़े की कढी भूल गये थे या जान बूझ कर कढी खाते हुए उसका जिक्र नहीं करते थे। 
मगर में कुछ भी नहीं भूल सकी। आज भी कढी बनाते हाथ काँप जातें हैं। दिल पर टप्प से चोट लगती हैं..... बहुत ज्यादा दर्द होता है। 
                                           नीता श्रीवास्तव
                                            294 देवपुरी कालोनी
                                           महू. 453441
                                             9893409914 #CityEvening आलू बड़े की कढी 🙏✍☺
आलू बड़े की कढी

बाऊजी खाने- खिलानें दोनों कें ही शौकिन थे। दादी कलपती कि बाऊजी का पूरा बचपन पढाई की वजह से रिश्तेदारों के घरों में बीता, वहाँ जों मिल गया, जितना मिल गया खाने से मन अतृप्त रह गया हैं। 
और बाऊजी को टोकने पर वें तुरन्त रामकृष्ण परमहंस जी की भोजन प्रियता का प्रसंग सुनाकर मुस्कराने लगते... कहते... खाना- खिलाना बुरा शौक नहीं हैं। "
इसलिए छुट्टी का दिन हों या वार त्यौहार, हमारे घर किसी न किसी मेहमान का निमंत्रण तय रहता था क्योंकि बाऊजी किसी की भी दावत उधार नहीं रखते थे। बल्कि दोगुना थाल परोसा जाता था। 
बाऊजी के टिफिन  में भी दोगुनी मात्रा में भोजन रखा जाता था। बाऊजी भी प्राय: सहकर्मियों के डिब्बे में आए। स्वादिष्ट व्यंजन का घर आकर जिक्र भी करते। 
एक बार उन्होंने बताया_"आज बजाज के टिफिन मे आलू बड़े की कढी आई थी, बहुत स्वादिष्ट। "
फुलोरी, भजिये, सुरजने, बैंगन, पापड़ आदि की कढी तो खाई थी मगर उन्हें आलू बड़े की कढी बहुत पसंद आई माँ सें कहने लगे, _"तुम भी बनाना चावल के साथ मजा आ जाएगा। गरम- गरम खाने में। 
सुनकर हम सबके मुहं में पानी आ गया। मगर बात टल गई और फिर तो ऐसी टली, की टली ही टली। 
हर बार त्योहार, जन्मदिन, व्रत उपास के अगले दिन कढी चावल बनाने की परम्परा जारी रही, मगर जाने क्यों आलू बड़े की कढी कभी नहीं पकाई गई, बस जिक्र ही होता रहा। 
पहले माँ सिधारी उसके साल भर बाद दादी भी सिधार गई। सालों बीत गए। हम तीनों बेटियाँ ब्याही गई, बहुंए आती गई। रसोई इस हाथ से उस हाथ में हस्तातरित होने के बावजूद भी बाऊजी की प्रशंसित आलू बड़े की कढी सिर्फ रसीली चर्चा में शामिल होती रही मगर उनकी थाली में कभी परोसी नहीं गई। 

धीरे- धीरे बाऊजी शायद आलू बड़े की कढी भूल गये थे या जान बूझ कर कढी खाते हुए उसका जिक्र नहीं करते थे। 
मगर में कुछ भी नहीं भूल सकी। आज भी कढी बनाते हाथ काँप जातें हैं। दिल पर टप्प से चोट लगती हैं..... बहुत ज्यादा दर्द होता है। 
                                           नीता श्रीवास्तव
                                            294 देवपुरी कालोनी
                                           महू. 453441
                                             9893409914 #CityEvening आलू बड़े की कढी 🙏✍☺