तूफानों के इस दहसत में अनुमान लगाये बैठे हैं खुद के जीवन की फिक्र नहीं इक जान बचाये बैठे हैं ।। वह नन्हा था पर था बुलबुल मानव चित को झकझोर दिया मानवता की परिभाषा को मृत्यु के पथ पर तौल दिया ।। एक था मानव वो भी शायद जो मृत्यु को पाने निकला था ना चिन्ता थी उसको अपनी पर जान बचानें निकला था ।। मिट गया तुफा खुद ही तबतक वह जीवन पाये बैठा था वह जीत गया अपना जीवन इक जान बचाये बैठा था ।। गर हो, ऐसी मानवता तब ही मानव कहलाता है अपने दुख का ना दर्द उसे पर सबके जख्म मिटाता है ।। अशोक सिंह आज़मगढ़ तूफानों के इस दहसत में अनुमान लगाये बैठे हैं खुद के जीवन की फिक्र नहीं इक जान बचाये बैठे हैं ।। वह नन्हा था पर था बुलबुल मानव चित को झकझोर दिया मानवता की परिभाषा को