पर्वत और सागर दोनों ही उम्मीदवार थे राजकुमारी के हाथों अपना नसीब लिखाने आये थे चुनेगी वो सागर के दिल की गहराई या फिर गले लग जाएगी फौलादी पर्वत की बाँहों में उसने सोचा, कई बार परख कर देखा पहले साग़र की तली में गोता लगाकर, फिर पर्वत के शिखर पर बैठे ठंड में ठिठुराते हुए लेकिन बरसों बीत गए, उम्मीदवारी चलती रही वो कभी पर्वत के गर्वीले एकाकी स्वभाव को देखती तो कभी साग़र के रहस्यमयी गहराई में डूब जाती फिर भी कहीं ना कहीं आकर बात ठहर जाती इश्क़ हो चला था उसे साग़र की ठंडी सी उतराती लहरों से तो कम मदहोश ना होती जब पर्वत की बाँहों में बैठ जाती सारी उम्र वो खुद से जिरह करती गयी, अपने दिल को मजबूर पाकर खुद को मिट्टी फिर जमींदोज करती गयी बिछ गयी सागर के चारों ओर खुद को जर्रा जर्रा करके मग़र लिपटती भी गयी पर्वत की चौड़ी छातियों में जाकर अपनी ज़ात भूल गयी जिनके इश्क़ में आज वो दोनों ही उसके महबूब हैं मग़र किसी को पता नहीं उसके दिल असल में कौन है? #पर्वत और #सागर