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काग़ज़ के टुकड़े मेरे दुखड़े,एकत्रित हुए किताब में..!

 काग़ज़ के टुकड़े मेरे दुखड़े,एकत्रित हुए किताब में..!
पीड़ा में बीती ज़िन्दगी यूँ ही,बदनामी मिली खिताब में..!

क़लम को अपनी पहचान बना,चमकाना चाहा ख़ुद को आफ़ताब में..!
ज़माने की तपन ने बनाया,मज़बूत हमें दबाव में..!

बिख़रे पड़ें हम घर के बड़े बन,ज़िम्मेदारियों के ख़्वाब में..!
झूठ झलकता दिखता है,अब अपनों के जवाब में..!

सत्य पराजित होता यूँ ही,भेड़ियों के नक़ाब में..!
दौलत के दरिया में डूबे,हुस्न के शबाब में..!

और कहते हैं गरीब को,कुछ यूँ ही हड्डी क़बाब में..!
देखते हैं दर्पण कर ख़ुद को तर्पण,दिखावे यूँ आब में..!

©SHIVA KANT
  #Barsaat #kagajketukde