आजकल की इस आबोहवा में इंसानियत खो गई है,लकवा में एक-दूसरे देखकर न मुस्कुराना भीतर घुल चुका है,जहर हवा में कोई किसी की मदद न करता, हर मनु स्वार्थ की बात करता, आजकल की इस आबोहवा में स्वार्थ घुल चुका है,हर दुआ में आजकल हर रिश्ते टूट रहे है तेज हवा के एक ही झोंके में कांच शर्मिंदा होकर रो रहा है उससे ज्यादा बिम्ब हुए सीने में अंदर कुछ,बाहर से कुछ बोलते, हृदय हुए सब छली हर महीने में आजकल की इस आबोहवा में हरमनु बेईमान हुआ पानी पीने में हर रिश्तेदार बगुले बनकर बैठे है जिंदगी के हर दिन,हर महीने में फिर भी पत्थर से सर टकराएंगे, आज नही कल झरना बहाएंगे, हम भी समां जलाएंगे हर सीने में बन दीप मिटायेंगे तम हर सीने में खिलेंगे फूल नये,हंसेंगे चेहरे नये, फिर होगी भू स्वर्ग हर गली-कूँचे में दिल से विजय आजकल की आबोहवा