"आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी" आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी। बिन जलाएं स्वयं जल रहा है आदमी॥ चाहु ओर घेरे निराशा पड़ी है। जीवन में आई ये कैसी घड़ी है? सभी को सभी सुख चुभ रहा है। कोई किसी का भी दिखता नहीं है।। हर तरफ दिल में है अब आगजनी़। आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी॥ मन में कहीं शांति टिकती नहीं है। भाव संवेदना आज दिखती नहीं है॥ सिसकती गली है कंपाता डगर है। न जाने! किसकी लगी ये नज़र है॥ कहीं दिखती नहीं प्रेम की कोठारी। आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी॥ अब समय है विकट गिरती यह लपट। कौन है इसको बुझाए है प्रश्न! यह सबसे विकट॥ सारी मानवता बिखरी जा रही जब। कोई दिखता नहीं जो संभाले इसे अब॥ प्रेम आनंद से भिगोये जो सारी जमीं। आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी॥ आओ सब मिल विचारे नया कुछ सवारे। मिटाये जलन अब अपने मन को बुहारें॥ करें प्रेम सबसे और सभी को सवारे। अपना यह जीवन जनहित में वारे॥ तभी मुस्कुराएगा ये शमां और खिल-खिलाएगी जमी। आदमी को स्वयं खल है रहा आदमी॥ बीन जलाए स्वयं जल रहा है आदमी॥ आदमी को स्वयं खल रहा है आदमी