समुद्र अथाह जलराशि को आगोश में समेटे , मैं सब देखता हूँ लेटे-लेटे! मानवीय संवेदनाओं से शून्य होती धरा, भूख,गरीबी और लाचारी से कराहती मानवता , दिन-रात फलती-फूलती दानवता, स्वार्थपूर्ति के लिये जनमानस को बलि का बकरा बनाते बकरकट्टे, दुबली पतली काया वाले का शोषण करते हट्टे -कट्टे, आख़िर कब तक चलती रहेगी अंधेरगर्दी ? कब तक फलते रहेंगे बेदर्दी ? किस दिन पैदा होगी इन्हें हमदर्दी ? देखने के सिवा कर भी क्या सकता हूँ? बहुत क्षुद्र हूँ, मैं समुद्र हूँ। #समुद्र