प्रिय चाँद, तुम पर लिखूँ मैं जितना भी सब कम रह जाएगा तू ही बता कैसे तू चंद लफ़्ज़ों में कहा जाएगा। तुम इश्क़ में, तुम इंतजार में, तुम ही खुमारी में तुम अश्क में, तुम करार में, तुम ही वफ़ादारी में। मित्र, कितनी भी उपमा दे दूँ कम ही लगेंगी और शायद तुम्हें एक ख़त में लिख पाना गुलज़ार साहब या फिर जावेद साहब या आनंद बक्शी साहब के बस की बात है, तुम्हारे इस सखा के लिए नहीं..। तुम्हें एक पत्र नहीं, एक उपन्यास नहीं, एक ग्रंथ में लिखा जा सकता है, और शायद उसमें भी नहीं..। पर फिर भी कोशिश जरूरी है। जावेद साहब कहते हैं कि - कभी यूँ भी तो हो दरिया का साहिल हो पूरे चाँद की रात हो और तुम आओ मैंने तुम्हारी अहमियत बहुत करीब से मेहसूस की है चाहे वो करवा चौथ पर तुम्हारा इन्तजार करती सुहागन, या फिर ईद की राह देखता रोजा रखने वाला इंसान.. सब तुम्हारा बेसब्री से इंतजार करते हैं, तुम्हारी राह देखते हैं..। मित्र, तुम्हारी काया बेशक प्रतिदिन बदलती है पर तुम्हारा प्यार कभी कम नहीं होता, आशिक नया हो, पुराना हो तुम्हारी और उसका झुकाव बना रहता है।