" दिन यहाँ ऐसे गुज़ारता हैं कोइ, जैसे एहसान उतारता हैं कोइ! ये आइना देखके तसल्ली हुयी, हमको इस घर में जानता हैं कोई !" अभी फ़ोन में जगजीत जी के गलियारों से ग़ज़लों का कारवाँ गुज़र ही रहा था की बस ये एक ग़ज़ल आयी, जिसके ये कुछ अलफ़ाज़ बस ऐसे लगे की इसी समय के लिए ही बने हैं । वो घर या कमरा जो हैं तो हमारा पर भागदौड़ में वो बस एक रात गुज़ारने का जरिया ही रह गया था । जब हम कुछ हो पाने की दौड से थकते हैं न , तो हम शायद घर में ही सबसे अपने होते हैं l अब देखिये वो जो अपना था या जहा हम सबसे ज्यादा अपने थे आज ऐसा एहसास दे रहा हैं की उसमे बlहर के डर से बहुत सुकून हैं l सिखने वाली बात हैं की ज़िन्दगी में जिससे जुड़िये उसका घर बनने की कोशिश कीजिये , भले किराए का ही सही या कोई रैनबसेरा ही । दफ्तर नहीं , क्युकी इंसानी रिश्ते कामो के मोहताज नहीं होते जहा बस इसलिए जुड़ते हैं । सुकून देके भी उतना ही सुकून मिलता हैं जितना किसीसे से मिले तब lशायद तभी कहते हैं की दिमाग का घर दफ्तर हो सकता हैं , पर दिल में भी घर कर सकते हो अगर किसी को वैसा ही एहसास दे सकते हो जो आज ये कमरा ही तुम्हे दे रहा होगा l #realisation #quarantine #home #life