अपने हाथों से जो पौधें थे लगाए, आज उनके ही कांटे चुभाए गए हैं। खूं- पसीने से जिनको था सींचा, आज उनके ही दोषी ठहराए गए हैं। जिन घरों को बनाया था हमने, आज वही तो कहर ढहाए हुए हैं। दीवारों ने मारे हैं धक्के, अपने ही द्वारों से भगाए हुए हैं। जिस छत को रखा था सर पर उठाए, आज उसके ही टुकडों के दबाए हुए हैं। जिनको पैदल भी न दिया कभी चलने, आज वही" चले जाओ" का शोर मचाए हुए हैं। ©Kavi Dhanraj Gurjar चले जाओ.......