न पद है कोई विशेष, नाही ख़त कोई शेष जिससे उल्लेख करु अपना महत्व! न है वो दो मृग नैन, न चंचल बयार की रैन जिसके चंद्र में खिले मेरा मुख-मंडल। न तरल है हृदय मेरा, न शोख से है चित्त भरा, बस सरल प्रेम बना है मेरा एक गौण। न रूप किसी शशि विधा, न अधर मेरे कमल सुधा, सौंदर्य और कुरूप के मध्य हूं अदृष्ट। न शीत की हूं मै तिमिर, न ग्रीष्म की ताप अनल, क्या प्राप्त होता प्रेम में, सामान्यता को पद? न पद है कोई विशेष, नाही ख़त कोई शेष जिससे उल्लेख करु अपना महत्व! न है वो दो मृग नैन, न चंचल बयार की रैन जिसके चंद्र में खिले मेरा मुख-मंडल।