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लड़ती है झगड़ती है, दुलार पर माँ सा करती है..! मेरी

लड़ती है झगड़ती है,
दुलार पर माँ सा करती है..!

मेरी बहना स्वर्णिम गहना,
कष्टों को मेरे हरती है..!

कभी नभ की ऊँचाईयों सी रहती,
कभी निर्मल गँगा सी बहती..!

सहती भाईयों से दूरियाँ,
जैसे धधकती धरती है..!

पराया धन नहीं ये,
कृपा हैं ईश्वर की..!

कहना क्या ही ढहना न जाने,
खुशियों से आँगन भरती हैं..!

मकाँ को सजाती रहती हरदम,
ख़ूबसूरत घर फिर करती है..!

भेदभाव के भूत प्रेत से परे,
सोच रखती समवर्ती है..!

विपदाओं के विकार को दूर करे,
देवियाँ कहाँ किसी से डरती हैं..!

©SHIVA KANT
  #CityWinter #bahna