सैकड़ों ख्वाहिशों को, दिल में दबा रक्खा है., मगर मुस्कुराहट तले, हर गम छुपा रक्खा है.. एक चेहरे को पढ़ने में, लग जाती है सदियां., और लोगों ने , चेहरे पर चेहरा चढ़ा रक्खा है.. जहन पे जोर देने से, याद आता है अब नाम., एक शख़्स को मैंने, इस तरह भुला रक्खा है.. बस इतवार को हो पाती है, खुद से मुलाकात., अपने लिए मैंने, इतना-सा वक्त बचा रक्खा है.. किसी रोज, इन्हीं के पैरों में तुम्हारा सर होगा., यही जिन्हें तुमने , अपने सर पे बिठा रक्खा है.. कल तलक ये, एक ही थाली में खाया करते थे., जिनको तूने, मज़हब के नाम पर, लड़ा रक्खा है.. किसी रोज ये खबर मिलेगी, हम फना हो गए., फिल्हाल जिस्म ने, रूह का वजन उठा रक्खा है.. तुम्हें बताया तो था, समझते क्यों नहीं आखिर? हरेक बात में उसका ज़िक्र , क्या लगा रक्खा है? बरगद बड़े सलीके से खड़े रहे, अंधियों के बीच., और चन्द गमलों ने, आसमां सर पे उठा रक्खा है.. ©Balram Bathra #रक्खा_है