फूल में ख़ुशबू नहीं, काँटे नहीं हैं राह में। सब्र दिल में है नहीं, हया नहीं निगाह में। मुस्कान में ख़ुशियाँ नहीं, क्रन्दन नहीं है आह में, मन में आदर भाव ना, ना भावना है विवाह में। उन्मुक्त बहते जा रहे हैं पश्चिमी अपवाह में, देह ही एक साध्य है अब प्रेम के प्रवाह में। एक दौर ज़िन्दगी कट जाती थी एक चाह में, एक दौर सब इश्क़ ही निपटा दिया ‘सप्ताह’ में। .....अतुल 😊 साप्ताहिक प्रेम