क्यों अचरज हो? क्यों विस्मय हो? जो आज यह तेरी करनी है, तेरी एषा ही कारक है, हृदय ही उसकी जननी है। ना गूढ़ समझ अभिलाषा अपनी, ना मूढ़ यहां कोई प्राणी है। गर्धित प्रवत्ति से पटी तेरी काया, दुख रूपी अचल से दबनी है। जिस मूलतत्व का परिणाम जगत है, दोहन मत करना उस अबला का, नृत्य चंडिका के फलस्वरूप, धरा पर चपला बसनी है। तू निकल सुषुप्ती से चेतस जगा, समझ- बूझ कर ना समय गवां, कर्ण- पट्टिका खोल भी तू, यह कहती तुझसे अवनी है। गर मूलतत्व की तंद्रा टूटी तो, चित्यम तेरी सजनी है। यह कहती तुझसे अवनी है। यह कहती तुझसे अवनी है। कहती तुझसे अवनी है..........