गर्मियां पड़ने वालीं हैं, पर वो ख़ुशी कहाँ रही? बचपन बीत गया, लम्बी सी वो छुट्टी कहाँ रही? वो चटकती धूप से धुली सुबह फिर आएगी, वो गर्म दोपहरी की उनींदी चुप फिर छाएगी, खाना खा कर, माँ से छुप कर निकल जाना, शाम को डांट पड़ेगी जान कर जोखिम उठाना, बगिया में वो खेलते रहने की आज़ादी कहाँ रही? गर्मियां पड़ने वालीं हैं, पर वो ख़ुशी कहाँ रही? या माँ न सोये तो घर पर मुंह बनाए बैठे रहना, दीदी के साथ लड़कियों वाले खेल खेलते रहना, धीरे धीरे रम जाना और सारा गुस्सा भूल जाना, धूप ढलते ही दौड के आंगन के झूले में झूल जाना, अब हिलोरे देने वाली झूले की वो रस्सी कहाँ रही? गर्मियां पड़ने वालीं हैं, पर वो ख़ुशी कहाँ रही? खूब बड़ा आम का पेड़ था पड़ोस के आंगन में, अजीब टीस उठती थी उसे देख कर मेरे मन में, उसके पत्ते गर्म हवाओं में चट चट बोलते थे, जैसे वो किसी सपनों की दुनिया में डोलते थे, वो सपनों की प्यास, वो चैन की उदासी कहाँ रही? गर्मियां पड़ने वालीं हैं, पर वो ख़ुशी कहाँ रही? ©Shubhro K #Summer