इस तमाशे की दुनिया में तुमने भी क्या खूब तमाशा किया, छीन कर मेरी आज़ादी मेरे लिए ही आंदोलन का नाटक किया ।। सुना है मैने हमेशा से रखते है गुनहगारों को सलाखों में तो फिर क्यों बांध दी बेड़ियां मेरे हाथ पैरों में!! घूम रहे हैं वो बाहर मेरी कैद का जशन मनाने ढूंढ रहे हैं वो कोई शिकार फिर से नोच खाने ।। ढलते सूरज के साथ ढल जाता है उनका ईमान भी रात के अंधेरे में छिन जाता है मेरा सम्मान भी । दिए थे बुद्धिजीवियों ने बहुत तर्क मेरे उतरते सम्मान पर, क्यों हर बार गलत बताया गया, कभी मेरे चरित्र तो कभी मेरे आवरण को तन पर !! मेरे हर दिखते अंग उन्होंने है लार टपकाई, बुरखा पहन कर भी मै खुद को कहां बचा पाई ?? यूं छू कर जो निकल जाते हो तुम मेरे अंग को, घिसती रह जाती हूं मै कभी उसको तो कभी अपनी सुन्दरता के...... मिटती नहीं है भूख तुम्हारी दबोचने के बाद भी मुझको कभी बस तो कभी खेत में नोचा तुमने मेरे हर एक अंग को ठंडी भी नहीं हो पाती है आग भी मेरी चिता की निकल पड़ते हो तुम ढूंढने फिर से मुझको ही।। उतर तो आते हो तुम मोमबत्तियां लेकर सड़कों पर, लेकिन क्या जला पाते हो तुम खुद के दानव को अपने अंदर ।। बदलना चाहते हो जो तुम सब मुझको बस एक बार मेरी भी तो बात मान लो रह जाती हूं मै जिन सलाखों में अंधेरा घिरते ही एक बार कैद तो करके देखो तुम इन मर्दों को भी नहीं है अब द्रोपदी की साड़ी इतनी लंबी ना ही है अब उसका कोई कृष्ण संगी इस कलयुग में हर घर दुशासन ने जन्म लिया तभी तो कभी तुमने मुझे जला हुआ तो कभी निर्वस्त्र सड़क से उठाया ।। समय का पहरा जो तुम सबने हमेशा से मुझ पर लगाया उस समय के चक्रव्यूह में क्या कभी खुद को भी फंसाया ? आज़ाद कर दो मुझको इन बेड़ियों से एक बार, लगा कर देखो तुम बंधन इन हैवानों पर एक बार, चहक उठेगी मेरी किलकारी फिर से एक बार, कैद हो जाएंगे अगर ये चार दिवारी में एक बार !!!!! ©रूपल कटियार #allalone #stoprapeculture