बारिश की मस्ती व कागज़ की कश्ती छुपन्न - छुपाई व बिस्तर और रजाई , जबरजस्ती का सोना फिर मम्मी के आँख लगते ही उठकर बाहर जाना। वह बचपन भी क्या दिन थे। वह बचपन भी क्या दिन थे।। टूटी लकड़ी का बल्ला , इटों की विकटें व मिट्टी के खलौने रोए तो कभी हंस दिए , छोटे - छोटे ख़ुशी , छोटे- छोटे वो गम पल में ही मारा- मारी फिर दो उंगलियों के मिलाते ही पक्का यारी । वह बचपन भी क्या दिन थे। वह बचपन भी क्या दिन थे।। जिद्द तो मानो सिर चड़ बोले ना हो पूरी ख्वाहिश तो गुस्से से गल फूलना छोड़ कर खाना पीना मानो अनशन में बैठ जाना, ना आए कभी निंदिया तो मां की लोरी और व प्यार भरी थपकी ही हमारे नींद का दवा बन जाना । वह बचपन भी क्या दिन थे । वह बचपन भी क्या दिन थे ।। लौटा दे मुझे वो दिन जब हर चीज में खुशी थी , कुछ नहीं था फिर भी कितनी हसीन थी पर क्या करूं। वह बचपन भी क्या दिन थे। वह बचपन भी क्या दिन थे ।। ....Gagan PRASENJIT KUMAR PG