हमदर्दी जो है, आजकल दो ही शेड्स में आ रही है. एक हरा, दूसरा केसरिया !!
आप कितनी भी इंसानियत की बात कर लें मगर सच तो ये है कि आपकी इंसानियत का इंद्रधनुष इन्हीं दो रंगों से बना हुआ है. आपके आसपास हज़ार लाशें क्यों ना पड़ी हों मगर आप उस एक लाश के लिए रोना चाहेंगे जो आपके अपने मज़हब की है. उस एक लाश का मज़हब ये तय करेगा कि आपका हमदर्दी का शेड हरा होगा या केसरिया. मज़हबी हिंसा में जब किसी व्यक्ति की जान जाती है तो हम सबसे पहले यह खोजते हैं कि मरने वाले का नाम पहलू ख़ान है या अंकित सक्सेना. हमारी हमदर्दी मरने वाले के धर्म पे आधारित होने लगी है. हम लोग इस हद तक गिर गये हैं कि बलात्कार जैसी घिनौनी घटनाओं में भी हम लोग सबसे पहले यह पता करते हैं कि पीडिता का नाम आसिफ़ा है या गीता ??
आप हर किसी व्यक्ति में अपना मज़हब देखेंगे तो आपको दाढ़ी, टोपी, तिलक या चंदन के अलावा कुछ दिखेगा ही नहीं. ज़रा सोचिए, अगर आप हिंदू हैं और किसी भिकारी ने आपसे “अल्लाह के नाम” पे कुछ माँग लिया, तो आपके पास उसको देने के लिए सिवाय नफ़रत भरी नज़र के कुछ नहीं होगा. उस भिकारी का कटोरा आपके गिराए हुए सिक्के से खनखना भी सकता था मगर तब, जब वह आपके अपने मज़हब का होता.. सड़क दुर्घटना में कई अधमरे शरीर वहीं दम तोड़ देंगे अगर आसपास के लोग खून से सने शरीरों में हरा या केसरिया शेड खोजेंगे..डॉक्टर्स अपने मरीज़ों के इलाज़ से पहले उनकी पतलून खोल कर देखेंगे कि वह मरीज़ उनकी हमदर्दी के पेरामीटर्स को पूरा करता है या नहीं.
ये धर्माधारित हमदर्दी हमारे समाज के लिए आने वाला खतरा है. मुस्लिमों को समझना चाहिए कि पाकिस्तान में पीड़ित हिंदुओं को भी उनकी हमदर्दी की ज़रूरत है. वह मुस्लिम आदमी जिसने अपनी टाइमलाइन "Save GAza" ये "Pray For Gaza" जैसे पोस्टों से भर दी है , उसको यह समझना चाहिए उसकी हमदर्दी का इंतजार मुस्लिमों द्वारा मारे गये कश्मीरी पंडितों को भी है. उसी तरह जिन हिंदू भाइयों का दिल कश्मीरी पंडितों के बेघर हो जाने पे तड़प उठता है उनका दिल बांग्लादेश से आए हुए बेघर शरणार्थी लोगों के लिए भी व्याकुल होना चाहिए. मैं नहीं कह रहा कि आप सबको नागरिकता दे दो मगर आप कम से कम उनसे सिर्फ़ इसलिए नफ़रत ना करें क्योंकि उनका मज़हब दूसरा है. रोहिंगया/बांग्लादेशी शरणार्थी सिर्फ़ मुसलमान नहीं है, बल्कि ज़रूरतमंद और मजबूर भी हैं..आप कभी उनका धर्म ना देख कर, उनके हालात, बदहाली, परेशानी या मजबूरी देख लें, तो शायद आपको शेड्स की ज़रूरत ना पड़े. हमदर्दी की ज़रूरत “मजबूरों” को होती हैं “मजहबों” को नहीं