ईश्वर ने अपनी सृष्टि में इतनी सूक्ष्म व्यवस्था रखी है कि ग्रहों नक्षत्रों उपग्रहों आदि की स्थिति और गति में अंश मात्र का परिवर्तन भी नहीं होता। सौर मण्डल तो अभी मनुष्य की पहुंच से बाहर है इसलिए वहां सृष्टि के नियमों में छेड़छाड़ मनुष्य के वश की बात नहीं है। उसका वश पृथ्वी पर ही चलता है और यहीं उसकी छेड़छाड़ चलती रहती है। इसी छेड़छाड़ के परिणाम भूकम्प,सुनामी,अकाल,अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आते रहते हैं। इन आपदाओं के कारणों की व्याख्या वैज्ञानिक अपने ढंग से करते हैं और पर्यावरणविद् अपने ढंग से। वैदिक विज्ञान जैसी गहराई कहीं दिखाई नहीं देती। हम भी पर्यावरण की धज्जियां उड़ा रहे हैं। तेल-पानी-सोना-खनिज के नाम पर धरती को पोला कर रहे हैं। पेड़ काटकर एक ओर पक्षियों की प्रजातियों को नष्ट कर रहे हैं,वहीं दूसरी ओर सूखे की स्थिति को न्यौता दे रहे हैं। इतना ही नहीं,हम तो अनावश्यक वनस्पति,जैसे जंगली बबूल,यूक्लेप्टस आदि बो कर जल मात्रा का दुरूपयोग कर रहे हैं। हमारे अंग्रेजीदां वन अधिकारी इस हरियाली पर गर्व करते हैं। यह हरियाली उनकी समझ की ही परिचायक है। पानी का दोहन भी राजनीति की चपेट में आ चुका है। पर्यावरण की परिभाषा भी प्रकृति के नियमों से मेल खाती हो,जरूरी नहीं है। तब क्या बचेगा भावी पीढ़ी के लिए! सड़े गले नोटों की गçaयां? मौसम में अनियमित उतार-चढ़ाव का एक और कारण दिखाई देता है,विभिन्न कारणों से धरती के संतुलन में आ रहा परिवर्तन। समुद्र में एक तरफ रेत,लवण और कंकर-पत्थरों का जमावड़ा बढ़ रहा है,जिससे पृथ्वी का समुद्रीय भाग भारी होता जा रहा है। दूसरी ओर,खनन और पेड़ों की कटाई से जमीनी भाग हल्का हो रहा है। सूर्य की गर्मी भी पृथ्वी के केन्द्र तक जल्दी पहुंचने लगी है। इसी तरह पृथ्वी की जो गर्मी चन्द्रमा और सूर्य तक पहुंचती है,उसमें भी अंतर आ रहा है। इससे इनके बीच चलने वाले विभिन्न आदान-प्रदान प्रभावित हो रहे हैं। इन सब कारणों का जो असर अभी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखाई दे रहा है,वह तो मात्र शुरूआत है। हो सकता है पृथ्वी के जमीनी व समुद्रीय भार का असंतुलन पृथ्वी की धुरी का झुकाव ही बदल दे।