ग़ज़ल- सोज़िश-ए-दर्द को हासिल कहाँ आराम अभी दिल के ज़ख्मों में रफ़ू का है बहुत काम अभी हो रहे हैं मेरे तामीर दरो-बाम अभी सब्र कर और ज़रा गर्दिश-ए-अय्याम अभी रोज़ सीने में सुलग उठती है शोलों की तरह हार मानी है कहाँ हसरत-ए-नाकाम अभी आसमां छूने की चाहत तो बहुत है लेकिन फिक्र का मेरी परिंदा है तहे-दाम अभी ऐ उजालों के अमीं क्या ये तुझे इल्म नहीं कितने सूरज हैं तेरे शहर में गुमनाम अभी ख़ून-ए-इन्सां जो बहाते हैं अबस सड़कों पर वो हक़ीक़त में हैं ना वाक़िफ़-ए-अन्जाम अभी चैन हासिल हो मेरे दिल को भला कैसे 'जमाल' ज़द पे गर्दिश के हैं दीवार-ओ-दरो-बाम अभी ग़ज़लकार-