गुजरे ज़माने की उस गली ने सूरत दिखाई क्या,, जो थी तेरी परछाई वो अंधेरे में नजर आयी क्या,, चढ़ते सूरज की रोशनी में खिलती है सारी कलियाँ,, बुझी तीलियां किसी ने ज़मी से उठायी क्या,, क़ैद है तू जिसके इत्र की खुशबू में,, रौनक़-ए-हुस्न कभी नजरों तक आयीं क्या,, क्यूँ कर लेती हैं वो पर्दा तुमसे,, ज़रूरी है रंगों में लड़ाई क्या,, बस कहने को एक हैं सब,, पंडित ने कभी आयत सुनाई क्या,, #secularism