अपने मन की व्यथा कहों कहूं किससे ? जो तुम समझते होते तो कहती तुमसे जो कभी ना समझे कहों ना उसे समझाऊं मैं कैसै? मेरा होना बेवजह ही था अब बेबुनियाद इल्जाम है मुझपें कहों ना खुद से नजरें मिलाऊं मैं कैसै? मैं बस आधुनिकता का झूठा नुमाइंदा हूं मेरे शब्द कोरी बकवास है बस कहो ना जो तुम्हें सुनने है उन शब्दों का खजाना ढूंढ के लाऊं मैं कैसै? बदलाव एक कोरी कल्पना है। सेतु टूट चुका है अब सब कुछ तो बदल गया कहो ना अमावस में चांद दिखाऊं तुम्हें मैं कैसै? अभी कहां बिखरी हूं मैं और कहां आस लगाए बैठी हूं किसी दिलासे की कहों ना अभी भी कुछ चाहिए क्या , तुम्हें मुझसे अगर हां तो कहों ना कब ,कहां, क्या और कैसै? ©Manvi (voice of a silent Heart !) 🙂🙃 14 August 2023 E!