ग़ज़ल दिन निकला और ढल गया ,रात आई और गुजर गई । यूं ही जिंदगी बह गई , दिन- रात करके । तू एक अहसास थी मेरे अंदर ,मेरी रूह की तरह , मगर न जाने कब बिखर गयी, कतरा-कतरा करके । खुल गए सब राज , कुछ दिन साथ रहकर , बेपर्दा हो गए सब चेहरे , एक- एक करके । गुरुर जख्मी हो गया है उनका , ये देखकर, कि कैसे चलने लगा है वो, सर उठा करके । करके नुमाइश अपनी ताकत का, क्या होगा ? इक दिन बिखर जाओगे तुम भी ,रेशा-रेशा करके, गर दम है बाजुओं में तो कर लो मंजिल हासिल , दिखा दो तुम भी, किसी पर्वत को हिला करके , उसको आना ही था आखिर, खून था अपना , जाता भी दूर कितना आखिर , बगावत करके । हासिल क्या होगा "बादल" , उसको दरबदर करके, वो भी तो देखेगा दुनियां अपनी बसा करके । रचना- यशपाल सिंह "बादल" ©Yashpal singh gusain badal' #Travel दिन निकला और ढल गया ,रात आई और गुजर गई । यूं ही जिंदगी बह गई , दिन- रात करके । तू एक अहसास थी मेरे अंदर ,मेरी रूह की तरह , मगर न जाने कब बिखर गयी, कतरा-कतरा करके । खुल गए सब राज , कुछ दिन साथ रहकर , बेपर्दा हो गए सब चेहरे , एक- एक करके ।