प्रकृति प्रकोप ************* अतृप्त धरा अति अकुलाई वर्षा रूठ नभ में खिसियाई फूलों की डाली मुरझाई पौधों ने भी शोक मनाई । क्यों रूठी हो धरा हमारी विकल भये सारे नर-नारी बादल क्रोधित नभ घनघोर बिजली चमक रही चहुँओर । आ जाओ अब वर्षारानी बुंद बुंद को तरसे प्राणी। बोली बरखा क्रोधित वाणी बंद करो अपनी मनमानी प्रकृति से मत करो खिलवाड़ वरना झेलो मेरा प्रहार ओ मानव जागो इकबार करो प्रकृति से अतिसय प्यार। लौट कर आऊँगी अगली बार तब तक झेलो सूखे की मार मत करो अब व्यर्थ प्रलाप करो धरा को नमस्कार। ******* आरती: प्रकृति प्रकोप