पगडंडियों सी पागल थी जिंदगी कभी नाव तो कभी जमीन पर बैठ जाया करती थी बड़ी सुहावनी हुआ करती थी कभी समंदर को पार करने की रवानी ,कभी सूरज तक पहुंचने की दीवानी रुकना उसने सीखा नहीं था चलती ही जाती थी ,लम्हे दर लम्हे में वह अपने अक्स लौटाती थी पगडंडियों से पागल कि जिंदगी.......... उसको हर लम्हा रोमांच लगता था जीवन उसको भोर सा दिखता था पागल चंचल मत मस्त थी वो किरणों के जैसी चलती थी आहट में ही सब को रोशन कर देती होली की आवाज में से रंग बिखेरा करती थी दीपावली के दीपक सी कुछ रोशन हुआ करती थी बारिश के बादलों से रिमझिम रिमझिम बरसा करती थी पगडंडियों से पागल थी जिंदगी...........