श्रुति भी यही कहती है
'रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति । भक्तिसे ही उस रसमय भगवान्के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। भक्तिसे ही वह ऋषि-मुनि- देवदुर्लभ परमानन्द मिलता है। अतएव भक्तिका ही आश्रय सबको लेना चाहिये। श्रीमद्भागवत में कहा गया है
सूर्यभगवान् रोज-रोज उदय और अस्त होते हैं, इसमें मनुष्योंकी आयु वृथा ही नष्ट होती है। बस, उतना ही समय सफल होता है जिसमें हरिचर्चा की जाती है। संसारमें जीते रहना और खाना-पीना कोई महत्त्वकी बात नहीं है। जैसे मनुष्य जीतेहैं, वैसे ही क्या जड वृक्ष नहीं जीवि