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प्रेम-एक तपस्या प्रेम को समझने समझाने का क्रम सदिय

प्रेम-एक तपस्या
प्रेम को समझने समझाने का क्रम सदियों से चलता आया है।मुद्दतों के बाद भी यह गुत्थी सुलझाने में सफलता नहीं मिली।यह किसी को त्याग लगता है तो किसी को तपस्या।किसी को सुकून लगता है तो किसी को समस्या।जिस तरह निभाया उस तरह पाया।बिछड़े तो विरह गीत बना मिले तो बसन्त छाया।प्रेम एक भाव है।मन के स्पंदन में एक ऐसा भाव जो सुख देता है।लेशमात्र इच्छा भी इसमें जुड़ी होती है।हम उसे कामना भी कहते है जो कर्म की प्रेरणा भी है।कर्म बंधन है।मजे की बात ये भी है कि वह विकास का कारण भी।शायद मैं भी समझा नहीं पाऊँगा छोड़ जाऊँगा नई पीढ़ी के लिए इस गुत्थी को ज्यों की त्यों। प्रेम-एक तपस्या
प्रेम को समझने समझाने का क्रम सदियों से चलता आया है।मुद्दतों के बाद भी यह गुत्थी सुलझाने में सफलता नहीं मिली।यह किसी को त्याग लगता है तो किसी को तपस्या।किसी को सुकून लगता है तो किसी को समस्या।जिस तरह निभाया उस तरह पाया।बिछड़े तो विरह गीत बना मिले तो बसन्त छाया।प्रेम एक भाव है।मन के स्पंदन में एक ऐसा भाव जो सुख देता है।लेशमात्र इच्छा भी इसमें जुड़ी होती है।हम उसे कामना भी कहते है जो कर्म की प्रेरणा भी है।कर्म बंधन है।मजे की बात ये भी है कि वह विकास का कारण भी।शायद मैं भी समझा नहीं पाऊँगा छोड़ जाऊँगा नई पीढ़ी के लिए इस गुत्थी को ज्यों की त्यों।
©दिव्यांशु पाठक
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प्रेम-एक तपस्या
प्रेम को समझने समझाने का क्रम सदियों से चलता आया है।मुद्दतों के बाद भी यह गुत्थी सुलझाने में सफलता नहीं मिली।यह किसी को त्याग लगता है तो किसी को तपस्या।किसी को सुकून लगता है तो किसी को समस्या।जिस तरह निभाया उस तरह पाया।बिछड़े तो विरह गीत बना मिले तो बसन्त छाया।प्रेम एक भाव है।मन के स्पंदन में एक ऐसा भाव जो सुख देता है।लेशमात्र इच्छा भी इसमें जुड़ी होती है।हम उसे कामना भी कहते है जो कर्म की प्रेरणा भी है।कर्म बंधन है।मजे की बात ये भी है कि वह विकास का कारण भी।शायद मैं भी समझा नहीं पाऊँगा छोड़ जाऊँगा नई पीढ़ी के लिए इस गुत्थी को ज्यों की त्यों। प्रेम-एक तपस्या
प्रेम को समझने समझाने का क्रम सदियों से चलता आया है।मुद्दतों के बाद भी यह गुत्थी सुलझाने में सफलता नहीं मिली।यह किसी को त्याग लगता है तो किसी को तपस्या।किसी को सुकून लगता है तो किसी को समस्या।जिस तरह निभाया उस तरह पाया।बिछड़े तो विरह गीत बना मिले तो बसन्त छाया।प्रेम एक भाव है।मन के स्पंदन में एक ऐसा भाव जो सुख देता है।लेशमात्र इच्छा भी इसमें जुड़ी होती है।हम उसे कामना भी कहते है जो कर्म की प्रेरणा भी है।कर्म बंधन है।मजे की बात ये भी है कि वह विकास का कारण भी।शायद मैं भी समझा नहीं पाऊँगा छोड़ जाऊँगा नई पीढ़ी के लिए इस गुत्थी को ज्यों की त्यों।
©दिव्यांशु पाठक
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