कविता-अकेले बनाम भीड़ ट्रेन में अकेली लड़की का जाना एकान्त में अकेले चुपचाप बैठना कॉलोनी में अकेले घर का होना कोई अलग या अकेली जुबान बोलना सड़क पर अकेली धोती, पगड़ी या दाड़ी का गुजरना सब की नजर में उसी तरह चुभता है जैसे बहुत बड़े मेले में खोए हुए बच्चे का अकेले गुमसुम बैठे होना अकेलेपन के विरुद्ध चारों ओर बेतहाशा भीड़ खड़ी है सड़क से संसद तक उसे मिटाने के नियम बनाये जा रहे हैं मानों अकेला होना आज सबसे बड़ा अपराध है कभी अकेले भगीरथ के शीश से निकली होगी गंगा सिद्धार्थ ने अकेले घर छोड़ कर पाया होगा बुद्धत्व अकेले गांधी ने किए होंगे सत्य के प्रयोग टैगौर का 'एकला चालो' गाकर अब कोई महात्मा नहीं बन सकता आजकल महात्मा होने के लिए भीड़ उतनी ही जरूरी है जितनी जरूरी हैं जीवन के लिए चलती हुई सांसे जरूरी नहीं अकेले होने के लिए संख्या इकाई में हो संख्या में अधिक होकर भी अकेले हो सकते हैं एक पूरी जाति को अकेला मानकर घोड़ी से उतारा जा सकता है पगड़ियों में से अकेली पगड़ी चुनकर जिंदा जलाया जा सकता है अकेले ईश्वर या खुदा में यकीन करने पर उसके पास पहुंचाया जा सकता है अकेला विचार सामूहिकता के लिए बड़ा खतरा है जैसे खतरा होता है जंगल के खिलाफ एक अकेली दियासलाई का होना अकेले होने का एक चेहरा होता है चेहरे से भीड़ उसी तरह डरती है जैसे जानवरों का झुंड डरता है किसी दूसरे एक जानवर को देखकर यहां जानवर से तुलना बेमानी लगती हैं वे अपनी प्रजाति का यूँ घेरकर शिकार नहीं करते भीड़ में अकेले होने का अहसान केवल उन सरों को होता है जो अपने गिने जाने से मना कर देते हैं वे बहुत दिनों तक कांधे पर नहीं टिकते टांग दिए जाते हैं किसी मीनार या गुम्बद के सबसे ऊपरी सिरे पर यह देखने के लिए आखिर में कौन अकेला बचेगा जो खुद को भीड़ बनने से रोक लगा