हा है हम ज़ख्म पर नमक जैसे मग़र हमे नामंजूर है लोग दीमक जैसे सच्चे तो बेख़ुशबू हो गए है यहाँ झूठे फैल रहे है महक जैसे नफ़ा-नुकसान जो है,सब सामने है बार बार बदलते तो नही यमक जैसे अच्छे लोग कम सही मग़र मिल जाते है पीतल में छिपा हो कनक जैसे जितने गिरे लोग,उतनी अच्छी बातें बेचते हो कोई झूठी चमक जैसे ©क्षत्रियंकेश कनक!