शोर बहुत है वादी में, आवागमन का मशगूल सभी है अपने क्रियाकलापों में मगर कुछ आवाजें छनकर आती रहती है बाजारों से या रिस कर । कुछ टूट चुकी है कुछ बिखर गई है शेष के होंसले खड़े पहाड़ों से इन्ही आवाजों को उठा नज्म में पिरो रहा हूँ कुछ को लगता है व्यथा-कहानी खुद की सबको को सुना रहा हूँ ये आवाजें जब बलवती होंगी देखना एक दिन गूँज उठेगी वादी में एक आवाज जो टूटकर विखर रही है अपने अधिकारों से निपटेगी सुन लेना तुम इन्ही आवाजों को जो बाज़ार से उठाकर लाया हूँ मैं ।