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रिश्ते और समबन्ध, कलयुग की माया के बन्धन...!! रिश्

रिश्ते और समबन्ध,
कलयुग की माया के बन्धन...!! रिश्ते क्या हैं,सम्बंध क्या हैं...?

सच कहूँ तो, रिश्ते और सम्बंध इस जीवन का सबसे बड़ा झुठ हैं। यह सिर्फ मात्र एक दिखावा हैं और कुछ नही। जो आपको हर पल अपने कर्म से पहले उनके बारे मे सोचने पर विचलित करेगा। अगर कलयुग की बात करे तो कलयुग माया से पूरी तरह प्रभावित हैं, माया से ही पूरी तरह ग्रसित हैं। यह रिश्ते और सम्बंध और कुछ नही उसी माया का एक रूप हैं। जो सदा हमे जकड़े रखते हैं। और अपने लक्ष्य से विचलित करते हैं।
अगर कोई व्यक्ति जीवन मे कभी कुंडलिनी जागरण का सोच रहा हैं या करना चाहता हैं, तो एक बात याद रखना, जितने ज्यादा रिश्तों मे उलझोगे, उतना ज्यादा इस शक्ती से दूर होते चले जाओगे। क्योकी अगर मूलाधार चक्र जाग्रत होता हैं, तो वह सबसे पहले इन रिश्तों से ही आपको दूर करता हैं, जो माया का एक रूप एक प्रलोभन हैं। 
रिश्ते और सम्बंध सिर्फ स्वार्थ पुर्ती का एक जरिया हैं। क्योकी अगर इस मायालोक मे जन्म लिया हैं तो माया, के बन्धन मे आपको कोई तो जकड़ ही लेता हैं, जिसे सबसे ज्यादा अन्जाम यही रिश्ते यही सम्बंध देते हैं।
माँ, पिता, भाई, बहन, पत्नी, बेटा, बेटी, दोस्त  यह रिश्ते यह सम्बंध और कुछ नही बस मोह का वही मार्ग हैं, जो आपकी मुक्ति के मार्ग को अवरोधित करता हैं। एक पुरुष और एक स्त्री के आपसी समबन्ध से एक सन्तान का जन्म होता हैं, अब दो लोगो के आपसी समबन्ध से जैसे ही तीसरा उतपन्न हुआ, रिश्ते और सम्बंध भी बढ गये। और यही प्रक्रिया निरन्तर चल रही हैं। किसी को अपने कुल की चिंता हैं, की उसके बाद उसके कुल को आगे कौन बडायेगा तो वह समबन्ध बनाता हैं। किसी को चिंता हैं, की बिना सन्तान के उसकी मुक्ति कैसे होगी तो वह सम्बन्ध बनाता हैं। कोई इस फ़िक्र मे हैं की अगर उसके साथ कोई ना होगा तो, वो कैसे जियेगा, तो वो समबन्ध बनाता हैं। इसी तरह यह फ़िक्र यह चिंता ही मनुष्य को माया से सदा जोड़े रखती हैं। और उस अस्तित्व का ज्ञान होने ही नही देती जो उसकी पूर्णता का माध्यम हैं। 
रिश्ते और समबन्ध बनाना गलत नही हैं, मगर सदा के लिये उनमे ही उलझ कर रह जाना तो गलत हैं। यह इस जीवन का एक अकाट्य सत्य हैं , की हर रिश्ता स्वार्थ से ही जुड़ा हैं, हर रिश्ता आपसे कुछ ना कुछ उम्मीद ही रखता हैं। सिर्फ ईश्वर ही हैं,जिसे आपसे कभी कोई उम्मीद नही रहती । क्योकी वह जानता हैं, यह पहले से ही इतने जन्जालो मे उलझ हैं, इससे क्या उम्मीद रखे, जो मेरे ही सहारे जी रहा हैं। और हम सबसे ज्यादा धोखा भी उसी ईश्वर को देते हैं। सिर्फ इन सांसारिक माया जाल से जुड़े सम्बंधो को सबकुछ मानकर।
पर सही कहूँ तो धोखा शायद हम अपने आपको ही दे रहे हैं। हम जितने रिश्तों मे बंधते जायेंगें, उनसे हमारी और हमसे उनकी उम्मीदे भी उतनी ही बड़ती जायेंगी। और यही उम्मीदे उस मार्ग मे बाधा बनेगी, जो आपका लक्ष्य हैं।
रिश्ते और समबन्ध,
कलयुग की माया के बन्धन...!! रिश्ते क्या हैं,सम्बंध क्या हैं...?

सच कहूँ तो, रिश्ते और सम्बंध इस जीवन का सबसे बड़ा झुठ हैं। यह सिर्फ मात्र एक दिखावा हैं और कुछ नही। जो आपको हर पल अपने कर्म से पहले उनके बारे मे सोचने पर विचलित करेगा। अगर कलयुग की बात करे तो कलयुग माया से पूरी तरह प्रभावित हैं, माया से ही पूरी तरह ग्रसित हैं। यह रिश्ते और सम्बंध और कुछ नही उसी माया का एक रूप हैं। जो सदा हमे जकड़े रखते हैं। और अपने लक्ष्य से विचलित करते हैं।
अगर कोई व्यक्ति जीवन मे कभी कुंडलिनी जागरण का सोच रहा हैं या करना चाहता हैं, तो एक बात याद रखना, जितने ज्यादा रिश्तों मे उलझोगे, उतना ज्यादा इस शक्ती से दूर होते चले जाओगे। क्योकी अगर मूलाधार चक्र जाग्रत होता हैं, तो वह सबसे पहले इन रिश्तों से ही आपको दूर करता हैं, जो माया का एक रूप एक प्रलोभन हैं। 
रिश्ते और सम्बंध सिर्फ स्वार्थ पुर्ती का एक जरिया हैं। क्योकी अगर इस मायालोक मे जन्म लिया हैं तो माया, के बन्धन मे आपको कोई तो जकड़ ही लेता हैं, जिसे सबसे ज्यादा अन्जाम यही रिश्ते यही सम्बंध देते हैं।
माँ, पिता, भाई, बहन, पत्नी, बेटा, बेटी, दोस्त  यह रिश्ते यह सम्बंध और कुछ नही बस मोह का वही मार्ग हैं, जो आपकी मुक्ति के मार्ग को अवरोधित करता हैं। एक पुरुष और एक स्त्री के आपसी समबन्ध से एक सन्तान का जन्म होता हैं, अब दो लोगो के आपसी समबन्ध से जैसे ही तीसरा उतपन्न हुआ, रिश्ते और सम्बंध भी बढ गये। और यही प्रक्रिया निरन्तर चल रही हैं। किसी को अपने कुल की चिंता हैं, की उसके बाद उसके कुल को आगे कौन बडायेगा तो वह समबन्ध बनाता हैं। किसी को चिंता हैं, की बिना सन्तान के उसकी मुक्ति कैसे होगी तो वह सम्बन्ध बनाता हैं। कोई इस फ़िक्र मे हैं की अगर उसके साथ कोई ना होगा तो, वो कैसे जियेगा, तो वो समबन्ध बनाता हैं। इसी तरह यह फ़िक्र यह चिंता ही मनुष्य को माया से सदा जोड़े रखती हैं। और उस अस्तित्व का ज्ञान होने ही नही देती जो उसकी पूर्णता का माध्यम हैं। 
रिश्ते और समबन्ध बनाना गलत नही हैं, मगर सदा के लिये उनमे ही उलझ कर रह जाना तो गलत हैं। यह इस जीवन का एक अकाट्य सत्य हैं , की हर रिश्ता स्वार्थ से ही जुड़ा हैं, हर रिश्ता आपसे कुछ ना कुछ उम्मीद ही रखता हैं। सिर्फ ईश्वर ही हैं,जिसे आपसे कभी कोई उम्मीद नही रहती । क्योकी वह जानता हैं, यह पहले से ही इतने जन्जालो मे उलझ हैं, इससे क्या उम्मीद रखे, जो मेरे ही सहारे जी रहा हैं। और हम सबसे ज्यादा धोखा भी उसी ईश्वर को देते हैं। सिर्फ इन सांसारिक माया जाल से जुड़े सम्बंधो को सबकुछ मानकर।
पर सही कहूँ तो धोखा शायद हम अपने आपको ही दे रहे हैं। हम जितने रिश्तों मे बंधते जायेंगें, उनसे हमारी और हमसे उनकी उम्मीदे भी उतनी ही बड़ती जायेंगी। और यही उम्मीदे उस मार्ग मे बाधा बनेगी, जो आपका लक्ष्य हैं।