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ग़ज़ल - 2212 2122 2221 222 होकर के तन्हा कहीं

ग़ज़ल - 2212 2122 2221 222

होकर   के   तन्हा   कहीं   पर    बे-तदबीर   बैठा    हूँ
मैं  किसका  क़ातिल  हूँ  जो  फिर पा'  जंजीर बैठा  हूँ

तुम  तो  मुहब्बत के  सहरा  हो  तुम-से  कहें  भी  क्या
मैं  कम्बख्त  हूँ  जो   यक   प्यासा  नखचीर   बैठा   हूँ 

मुझ'को  मिरी   मौत   से  कोई  शिक'वा  नही  है  दाग़
मैं   वैसे   भी   कब'से  यक  ज़ब्त-ए-तस्वीर   बैठा   हूँ

वो आइनें   फिर   उसी   शह'जादी   के  शहर   निकले
जिन   आइनों   में    रजा,  मैं    दिल-गी'र    बैठा     हूँ

अब  बद्दुआ  मत  दो  वाइज, मर'ने  वाला  हूँ   मैं  अब
मैं  अब   तिरे  दर   में   गिरफ्त-ए-शम'शीर   बैठा    हूँ

कोई  नज़र  मुझ'पे  भी   रख दो   जायगा  क्या   फिर
मैं   कबसे   कोई    मुसीबत-ओ-तक़बीर   में  बैठा   हूँ

सब  कुछ  मिरे हिस्से  का  खाते  हो तुम   मियाँ  है'दर
हैदर  मैं   हूँ    की    कोई   फूटी   तक़दीर    बैठा    हूँ

©Jiya Wajil khan #जिया
ग़ज़ल - 2212 2122 2221 222

होकर   के   तन्हा   कहीं   पर    बे-तदबीर   बैठा    हूँ
मैं  किसका  क़ातिल  हूँ  जो  फिर पा'  जंजीर बैठा  हूँ

तुम  तो  मुहब्बत के  सहरा  हो  तुम-से  कहें  भी  क्या
मैं  कम्बख्त  हूँ  जो   यक   प्यासा  नखचीर   बैठा   हूँ 

मुझ'को  मिरी   मौत   से  कोई  शिक'वा  नही  है  दाग़
मैं   वैसे   भी   कब'से  यक  ज़ब्त-ए-तस्वीर   बैठा   हूँ

वो आइनें   फिर   उसी   शह'जादी   के  शहर   निकले
जिन   आइनों   में    रजा,  मैं    दिल-गी'र    बैठा     हूँ

अब  बद्दुआ  मत  दो  वाइज, मर'ने  वाला  हूँ   मैं  अब
मैं  अब   तिरे  दर   में   गिरफ्त-ए-शम'शीर   बैठा    हूँ

कोई  नज़र  मुझ'पे  भी   रख दो   जायगा  क्या   फिर
मैं   कबसे   कोई    मुसीबत-ओ-तक़बीर   में  बैठा   हूँ

सब  कुछ  मिरे हिस्से  का  खाते  हो तुम   मियाँ  है'दर
हैदर  मैं   हूँ    की    कोई   फूटी   तक़दीर    बैठा    हूँ

©Jiya Wajil khan #जिया