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शाम सा तू ढलता रात धुँध-ए-बहर की तरहा हर-दम बेमज़

शाम सा तू ढलता

रात धुँध-ए-बहर की तरहा हर-दम बेमज़ा मेरी..... 
दिन दीगर ना इत्तिफ़ाक़ी से तेरा मुब्तदा चढ़ता,
 लगे तस्कीन अपनी तजल्ली के शबाब में 
अबदिय्यत ही मुझपे आसाईशें करता.... 
रज़ी सबात देता ये तराश "बुल्लेया", 
मैं हमेश्गी एक सवाब मुरीद-ओ-मुरशिद बनता.....

©Viraaj Sisodiya
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