ये रश्म रही है दुनिया की ज़िंदा लोगों को कुचलती मुर्दों पे फूल चढ़ाती है। मेरी महबूबा भी ऐसी ही है,आशिक़ को तड़पाती है और किसी गधे से पत्त जाती है।। महबूबा