दोहे होता है घोषित यहाँ,जब जब भी मतदान। सहते थे दुत्कार जो, बन जाते भगवान। भूखे बने जनार्दन, यह चुनाव का रंग। फिर गरीब गुरबा रहे,कैसा है यह ढंग। जाति धर्म के मोह में,फँस जाते हैं लोग। इसका टीका है नहीं,लाइलाज यह रोग। पाँच साल में ठोंकती,किस्मत सबका द्वार। पर विवेक हो सुप्त जब,क्यों न फँसे मझधार। वोट हमारा हक सदा,वोट सबल हथियार। इसके सही प्रयोग से , होगा बेड़ा पार। …… सतीश मापतपुरी ©Satish Mapatpuri चुनाव का भगवान