“शहर के लोग” (ग़ज़ल) ज़िन्दगी शहर के लोगों की बैचैनी में हैं काटते फिर भी लोग ऐसी ज़िन्दगी जीने के लिए मिटते दिन के उजाले में बीते ज़िन्दगी आपाधापी और भागम भाग मन को कहीं नहीं मिलती शांति ना ही शरीर को मिलता कहीं चैन आराम ख़ामोश शहर की चीखती रातें सब चुप हैं पर कहने को हज़ार बातें गगनचुंबी इमारतें रंग बिरंगे झिलमिलाहटें ज़िंदगी इस चकाचौंध में बिखर फड़फड़ाए कहने के लिए सब हैं लेकिन कोई यहांँ अपना नहीं जहरीला हो गया हवा पानी फिर भी इंसान इसके मोहपाश में फंँस कर इसी शहर का होकर रह जाता। #similethougths #kkpc22 #कोराकाग़ज़ #विशेषप्रतियोगिता #collabwithकोराकाग़ज़