उसकी आँखों में ख़ुद को हम खोजते रहे, तस्वीर ली थी उसने, बस आँखों में सजाना याद नहीं। हृदय की स्पंदन में हम उसको सुनते रहे, ’चाहता तो बेहिसाब है, बस इज़हार नहीं,कोई बात नहीं। यादों की गठरी को ख़ुद में भींच के सोता है, अंदर ही अंदर वो रोता है, बाहर कहीं कोई बरसात नहीं। मुस्कुराती आँखों से वो आईने को मात देता है, कौन देख उसे कह सकता, कि दिल से वो है शाद नहीं। अपनी ही दीवारों पे,जज़्बात वो अपने लिखता है, रानाइयाँ, रुबाइयाँ, फलसफे, क्या–क्या उसे ज्ञात नहीं। अपनी डगर, अपना सफ़र, चलता जाए अकेला, ’अबोध’ तुझे बतलाना था, कल वक्त नहीं, मैं आज नहीं। ... _अबोध_मन//“फरीदा” ©अवरुद्ध मन उसकी आँखों में ख़ुद को हम खोजते रहे, तस्वीर ली थी उसने, बस आँखों में सजाना याद नहीं। हृदय की स्पंदन में हम उसको सुनते रहे, ’चाहता तो बेहिसाब है, बस इज़हार नहीं,कोई बात नहीं। यादों की गठरी को ख़ुद में भींच के सोता है, अंदर ही अंदर वो रोता है, बाहर कहीं कोई बरसात नहीं।