"पतंग की डोर बन पतंग डोर सी खींच लूँ ले चलूँ आसमां के उस छोर। पंख फैलाये पंछी दिखे जहाँ सर सर हवा ही बहे चहुँ ओर।। कटी डोर सी तू मेरे साथ चल और पतंगों से उलझ न जाना। साथ छोड़ा जो इक बार तो मुश्किल है फिर मिल पाना।। मेरे साथ रहेगी मेरे साथ चलेगी ले चलूँगा जिधर हवा ये बहेगी। उलझ गई औरों से वो खींच लेंगे तुझे अपनी डोरी में भींच लेंगे।। फिर शायद मैं भी रह ना पाऊँ तेरे साथ ही इस जमीं पर आऊँ तुझे तो वो पंख फिर से लगेंगे शायद वो जगह मैं फिर ना पाऊँ।। इस डोर की पतंग भले कई हों पर इस पतंग की डोर इक तू ही है तू नहीं जो मेरे पास प्रिय तो पंख होकर भी वो उड़ान नही है।। रचयिता- बलवन्त रौतेला (B.S.R.) रुद्रपुर 23/09/2019 11:40 am