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9वीं शताब्दी में संत को सजा देने की घोषणा की और उस

9वीं शताब्दी में संत को सजा देने की घोषणा की और उसे गांव के बीचो बीच पेड़ के नीचे बांध दिया गया.. और सब लोगो से कहा कि वे उसे पत्थर मारे... और जो नहीं मारेगा उसको फिर राजा सजा देगा.. कहते है गांव के सारे लोगो ने संत पर पत्थर बरसाए.. पत्थर मारने वालो की भीड़ में उसका एक परम मित्र भी था... उस मित्र ने सोचा सब लोग तो पत्थर मार रहे है... मैं अपने मित्र को कागज में लपेटकर फूल मारूंगा.. जिससे उसे चोट भी नहीं लगेगी और राजा के लोगो को लगेगा कि उसने भी पत्थर मारा है.. अब जैसे ही मित्र ने हाथ घुमाकर फूल उसकी और मारा संत रोने लगे.. दोस्त ने कहा, लोगो ने पत्थर मारे.. तू लहू लुहान हो गया.. पर मैंने तो तुझे फूल ही मारा है और तू रोने लगा..

संत बोले- मारा तो तूने भी है.... तू भी मारने वालो की भीड़ में शामिल था, चाहे तूने मुझे फूल ही मारा.. फिर तू तो मेरा अपना था.. मुझे समझता था..

अक्सर जीवन में यही होता है आदमी दुनियाभर की चोट अपमान ( सह लेता है.. पर घर वालो की जरा सी बात से वो आहत हो जाता है.. इसे ही भावनात्मक तनाव कहेंगे.. आदमी बाहर का तनाव झेल  जाता है पर घर का तनाव झेल नहीं पाता.. क्योंकि जिनसे आशा नहीं थी वो ही बुरा भला कहे तो आदमी भीतर से टूट जाता है..

इसके लिए बहुत सारी अपेक्षाएं ना रखे किसी से... बस निष्काम भाव से अपना फर्ज और कर्म निभाते चले..

चाह गई चिंता मिटी मनुआ बेपरवाह, जिसको कछु ना चाहिए वो शाहो का शाह।

©Sn Choudhary
  #Sadu