शायर की मेहबूबा दिलबर ही हो कहां लिखा रखा है? हमने तो फिर ..कितने खयालों को ...सुलझा रखा है.. कब होते है ..इश्क़ बेपरवाह से साकी से ही ज़िंदादिल.. इंकलाब की आंधियों को कितने ने दिलों में सुलगा के रखा है ।।। बेबस ही सही ..रोज़ी रोटी की तलाश जारी है .. ऐसे ही कई अल्फ़ाजो को हमने बना रखा है ... ना हिन्दू हूं मैं..ना मुसलमां मैं हूं गालिब... हमने हर मजहब को खुद में समा रखा है .. चिड़ियों की जुगलबंदी की तरह ..गाते है हर दिन.. अपना ये नगमा ..हमने खुद ही बना रखा हैं.. वतन ए हिन्द की बेटियां हो बेशक ही रोशन सितारों सी अक्सर.. हमने कब ऐसे झूठे वादों की इश्तियार और बहाने बना रखा है.. है गुलाम सभी अपनी मजबूरियों की बोझा सुनाते हुए अब .. हमने कब कोई शायरी इश्क़ का किसी को सुना रखा है ? है मेहबूब मेरा तो मेरे ही जज्बात चुप जो रहे.. हमने बेखूबी से अब इनको भी किताबों की पन्नों में छुपा रखा हैं.. शायर की मेहबूबा दिलबर ही हो ..ये कहां लिखा है ? शायर की मेहबूबा..